लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
लम्बे अरसे बाद अच्छा कानून
नारी निग्रह था सुबह-सुबह नींद से जागने जैसा; उठ कर पेशाब करने जैसा; दाँत माँजने जैसा: चाय पीने जैसा! नारी निग्रह था महल्ले की दुकान से आधा पैकेट सिगरेट खरीदने जैसा: हर रोज बस में सवार होने जैसा: दफ्तर जाने जैसा! लंच के बाद जरा झपकी लेने जैसा; चबूतरे पर अड्डा देने जैसा; खैनी मसलकर, दो चुटकी मुँह में डालने जैसा! हाँ शाम को दो पेग जैसा! टीवी पर क्रिकेट देखने जैसा; रात को खा-पी कर डकार लेते हुए, जाँघे खुजलाते हुए बिस्तर पर जाने जैसा! नारी-निग्रह ऐसा ही निरीह, ऐसा ही नगण्य था! ऐसा ही नित्य-नैमित्तिक! इतना ही नार्मल!
अचानक किसमें क्या? और क्या? मांड़-भात में घी!
बात क्या है? यही कि गंज में कानून बाबू आये हैं। क़ानून बाबू इन दिनों आँखें तरेर कर लोगों को धमका रहे हैं- 'दुष्टता करेगा तो मरेगा।' दुष्टों के इस देश में न कोई बात, न चीत, वस लाल-लाख आँखें किये हुए छड़ी घुमाना! क़ानून बाबू को देख कर, पुरुष जनता हाथ में त्रिशूल लिए निकल पड़ी, लिंग के सिरे पर लाल पताका झुला कर, यौन-अनशन के लिए उतर पड़ी है। इस क़ानून बाबू को खदेड़े बिना मुँह में अन्न का दाना तक नहीं डालेगी। चारों तरफ़ हिंस्र फटकार! सूरत-शक्ल से सभ्य-भव्य दिखते हुए लोग तो नाक सिकोड़ कर लगातार बोले जा रहे थे–'कानून बना कर कुछ नहीं होगा। क़ानून का प्रयोग किसी समय, किसी काल में भी नहीं होगा। वैसा कानून बनाना क़ानून की हँसी उड़ाना है।'
किन्हीं-किन्हीं पुरुषों ने तो दाँत किटकिटाते हुए यह मन्तव्य भी दिया, 'क़ानून तो नहीं, मानो फ़तवा है।'
किसी-किसी ने कहा-'आधुनिक समाज में बाधा-निषेध जितना कम जारी करें, उतना ही मंगल है। अरे, समाज तो अपने आभ्यन्तरीन संशोधनों के तकाज़े पर चलेगा, बाहरी हुक्म पर नहीं।'
इस शहर में, सड़े-गले पुराने संस्कारों से ठसे हुए समाज को आधुनिक समाज होने का दावा करना और इस पर गर्व करने वाले लोगों की कमी नहीं है। हाँ, यह सोच-सोच कर मैं ताज्जुब में पड़ जाती हूँ कि धर्मान्ध पुरुषतान्त्रिक समाज कैसे और
कब आधुनिक हो गया। आज भी पुरुष, लड़की 'देखने' आते हैं। औरत को ब्याह कर पुरुष अपने घर ले जाते हैं। विवाह के बाद औरतों को शांखा-सिन्दूर पहनना पड़ता है, अपनी पदवी बदलनी पड़ती है, वे लोग किसी की सम्पत्ति बन जाती हैं-यही समझाने के लिए ये तमाम संस्कार! लेकिन, पुरुष को विवाह का कोई चिह्न वहन नहीं करना पड़ता।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं